भारत-जापान राजनयिक संबंध स्थापना की 60वीं जयन्ती के उपलक्ष्य में तोक्यो यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ॉरेन स्टडीज़, तोक्यो के सभागार में २८ से ३० जनवरी,१२ तक तीन-दिवसीय अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन हुआ, जिसमें जापान और भारत के अलावा मारिशस, त्रिनिदाद, डेनमार्क, अमेरिका आदि अनेक देशों के विद्वानों एवं साहित्यकारों ने बड़ी संख्या में भाग लिया। उद्घाटन सत्र में विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो.ताकेशि फुजिइ ने आयोजन समिति के अध्यक्ष के रूप में अतिथियों का स्वागत करते हुए कहा कि इस विश्वविद्यालय ने १९०८ में ही हिन्दी भाषा का शिक्षण आरम्भ कर दिया था,जब भारत के विश्वविद्यालयों में भी हिन्दी का पाठ्यक्रम शुरू नहीं हुआ था।उन्होने बताया कि अगले वर्ष से बंगला की भी पढ़ाई शुरू की जाएगी।
मुख्य अतिथि भारतीय राजदूत श्री आलोक प्रसाद ने कहा कि यह वर्ष भारत-जापान मैत्री का हीरक जयन्ती वर्ष है,जिसकी शुरुआत इस सम्मेलन के माध्यम से हो रही है,क्योंकि विभिन्न देशों संस्कृतियों को जोड़ने में भाषा सेतु का काम करती है।उन्होने बताया कि आज हिन्दी एक राष्ट्रभाषा के रूप में ही नहीं,विश्वभाषा के रूप में भी प्रसिद्धि पा रही है।आज कुल १३७ देशों में हिन्दीभाषी और हिन्दीप्रेमी हैं और विश्व में सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषा के रूप में हिन्दी का दूसरा स्थान है।उन्होने कहा कि पिछले साल जापान के प्रधान मंत्री ने भारत की सफल यात्रा की।इस वर्ष भारत के प्रधान मंत्री जापान आयेंगे।उस अवसर पर भी बड़ा समारोह होगा। उन्होने अपील की कि वर्ष भर चलनेवाले इस कार्यक्रम में सभी भाग लें।
समारोह के विशिष्ट अतिथि थे 74 वर्षीय हिन्दी विद्वान प्रो. तोशियो तनाका ने कहा कि जापानियों में भारतीय संस्कृति, भाषा और जीवन-दर्शन के प्रति स्वाभाविक अनुराग है। मै स्वयं १९५० के दशक में इलाहाबाद विश्वविद्यालय जाकर हिन्दी की विधिवत् शिक्षा ली थी और तोक्यो विश्वविद्यालय में हिन्दी के पठन-पाठन को सुव्यवस्थित करने का प्रयास किया था।मैं महात्मा गांधी से इतना प्रभावित था कि उनके ‘हिन्द स्वराज्य’ और उनकी जीवनी को गुजराती से सीधे जापानी में अनुवाद करने के लिए मैने गुजराती सीखी।
त्रिनिदाद से आये राजनयिक श्री हंस हनुमान सिंह ने कहा कि १८४५ से १९१७ तक यूपी-बिहार के ग्रामीण गिरमिटिया मजदूर के रूप मे त्रिनिदाद अपनी भाषा-संस्कृति की पोटली लेकर गये थे । वहाँ शहरों का नमकरण भी भारतीय शहरों के नाम पर ही हुआ है।मंदिर के पुजारी हिन्दी पढ़ाते थे।गोरखपुर के गाँव से त्रिनिदाद गये पं. कपिलदेव अंग्रेजी नहीं जानते थे,जिन्दगी भर देहाती हिन्दी बोलते रहे, मगर उनके ही पौत्र वी.एस. नायपाल ने अंग्रेज़ी में साहित्य लिखकर नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया।इसी तरह हरिशंकर आदेश हिन्दी अधिकारी के रूप में कभी त्रिनिदाद गये थे,मगर आज वे वहाँ के महाकवि हैं।गर्व की बात है कि हिंदीभाषी श्रीमती कमला प्रसाद बिसेसर आज हमारे देश की प्रधानमंत्री हैं। अब वहाँ हिन्दी को विदेशी भाषा के रूप में नहीं,बल्कि राष्ट्रीय भाषा के रूप में पढ़ाने की बात उठ रही है।दुख तब होता है जब हम दिल्ली आकर भी हिन्दी नहीं सुनते।
हंगरी के बुदापेस्ट विश्वविद्यालय की हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो.मारिया नेज्येशी ने बताया कि हंगरी में १८७३ से भारतीय विद्या के रूप में संस्कृत पढ़ायी जाती है।हिन्दी शिक्षण का कार्य वहाँ ५०-६० साल पहले शुरू हुआ।हंगरी में कुल ५०० भारतीय होंगे,मगर बीस वर्षों में दो हजार से ज्यादा लोग वहाँ हिन्दी से जुड़े ।उनमें से एक मेरी हंगरियन शिष्या आज ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में हिन्दी की प्रोफ़ेसर है।हिन्दी के कारण ही मैं आज पूरी दुनिया से जुड़ी हुई हूँ।
मारिशस में विश्व हिन्दी सचिवालय के उप महासचिव श्री गंगाधरसिंह सुखलाल ‘गुलशन’ ने विदेशों में फल-फूल रहा नया भारतवंशी समाज अपने पुरखों की थाती को सुरक्षित रखना चाहता है।जापान के विकास का भी यही कारण है कि यह आधुनिकीकरण के यूरोपीय मॉडल को नकारकर अपनी संस्कृति के अनुसार आधुनिकता को परिभाषित कर रहा है।ओसाका विश्वविद्यालय के प्रो. हरजेन्द्र चौधरी ने हिन्दी अपना प्रचार-प्रसार अपने बल पर कर रही है। भारत से सहयोग की अपेक्षा मौन उपेक्षा ज्यादा मिल रही है।जापान के विद्वानों ने जिस तन्मयता और समर्पण भाव से हिन्दी की सेवा की है,वह समर्पंण,वह त्याग भारत सहित किसी भी विकासशील देश के लिए प्रेरणादायक है।
ओसाका के प्रो.तोमियो मिजोकामि ने फ़िल्मी गीतों और संवादों के माध्यम से नयी पीढ़ी को हिन्दी से जोड़ने का अपना अनुभव बताया।उन्होने ‘मुगले आज़म’ ‘मदर इंडिया’ जैसी महत्वपूर्ण फ़िल्मों के संवादों की भव्य पुस्तकें प्रकाशित कर और देश-विदेशों में अपने छात्र-छात्राओं द्वारा हिन्दी नाटकों का मंचन कर एक नया इतिहास रचा।
दैनिक ‘जनसत्ता’ के कार्यकारी सम्पादक और ‘मुअन जोदड़ो’ यात्रावृत्त के यशस्वी लेखक श्री ओम थानवी ने जापानी फ़िल्म निर्देशक कुरसोवा और सत्यजीत राय के सम्बंधों को याद करते हुए ‘अज्ञेय’ की जापान में लिखी ‘अरी ओ करुणा प्र्भामय’ और जापानी लोककथा पर आधारित लम्बी कविता ‘असाध्यवीणा’ की चर्चा की और कहा कि कैदी ‘अज्ञेय’ की जिस पहली कहानी को प्रेमचन्द और जैनेन्द्र ने‘जागरण’ में छापा था,उसकी एकमात्र प्रति इसी विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में सुरक्षित है।डेनमार्क से पधारी डॉ.अर्चना पैन्युली ने कहा कि डेन्मार्क में जो प्रतिष्ठा पाँच करोड़ लोगों की भाषा डैनिश को मिली हुई है, वह भारत में करोड़ों की भाषा हिन्दी को नहीं।मतृभाषा को अपर्याप्त महत्व देना अस्वस्थ लोकतंत्र का परिचायक है और मानव अधिकार के खिलाफ़ है।
सम्मेलन के कुशल संयोजक और संचालक प्रो.सुरेश रितुपर्ण ने धन्यवाद-ज्ञापन के क्रम में बताया कि जापानी छात्र-छात्राओं की भारतीय संस्कृति, वेशभूषा,खानपान के प्रति गहरी रुचि है।ये बच्चे हिन्दी सीखकर उद्योग और वाणिज्य के क्षेत्र में दोनो देशों के बीच महत्वपूर्ण कड़ी बन रहे हैं। भारत में लगनेवाले उद्योगों में हिन्दी जाननेवाले जापानी युवक-युवतियों की बड़ी माँग है।भारत में अन्य विकसित देशों की भाषाओं के शिक्षण की आज भी पर्याप्त व्यवस्था नही है और प्रतिभाशाली बच्चे यदि अंग्रेज़ी सीखने के बजाय अन्य विदेशी भाषा सीखें,तो उनके लिए रोजगार के ज्यादा अवसर हैं।
इस अवसर पर काव्यपाठ करने के लिए आमन्त्रित,अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित कवि डॉ.बुद्धिनाथ मिश्र ने प्रारम्भ में कहा कि मैं जापान इसलिए भी आना चाहता था कि यहाँ के नागरिक जिस तरह अपने देश और देश की भाषा और संस्कृति से प्रेम करते हैं, वह भारतीयों के मन में आत्मविश्वास भरने में रोल मॉडल बन सकता है। डॉ मिश्र के गीतों और मुक्तकों ने देर तक बहुदेशीय श्रोताओं को आनन्दित किया।
शाम को जापानी बच्चों ने प्रसिद्ध जापानी लोककथा ‘उराशिमातारो’ के आधार पर डॉ. रितुपर्ण द्वारा रचित नाटक ‘प्रसन्ना’ का सफल मंचन कर दर्शकों का मन मोह लिया।
दूसरे दिन २९ जनवरी को ‘हिन्दी शिक्षण का वैश्विक परिदृश्य’ पर चर्चा में प्रो.तोमियो मिजोकामि(जापान), प्रो.मारिया नेज्येशी(हंगरी), डा. अर्चना पैन्यूली(देनमार्क), प्रो.सुषम बेदी(अमेरिका) ने अपने अनुभव बाँटे। ‘हिन्दी के वैश्विक प्रचार-प्रसार में हिन्दी सिनेमा और संगीत का योगदान’ विषय पर चर्चा में प्रो.तोमियो मिजोकामि(ओसाका),श्री हंस हनूमान सिंह(त्रिनिदाद), श्री ओम थानवी एवं श्री अतुल तिवारी (भारत) ने अपने विचार व्यक्त किये। तृतीय सत्र ‘नई सदी में हिन्दी का बदलता स्वरूप’ पर था,जिसकी अध्यक्षता प्रो.सुषम बेदी(अमेरिका) ने की।इसमें भारत के डॉ.बुद्धिनाथ मिश्र, श्री जगदीश उपासने,डॉ. पद्मजा शर्मा और डॉ.अमिषा अनेजा ने जीवन्त चर्चा की। शाम के सांस्कृतिक कार्यक्रम की शुरुआत मुंबई के श्री शेखर सेन के कबीर, तुलसी और विवेकानंद पर प्रस्तुत एकल काव्याभिनय और गायन से हुई। उसके बाद ‘ससुराल गेंदा फूल’,‘डार्लिंग’ आदि गानों से अपार लोकप्रियता हासिल करनेवाली पार्श्वगायिका रेखा विशाल भारद्वाज ने अपने गानों से लोगों को मन्त्रमुग्ध कर दिया।
तीसरे दिन की शुरुआत ‘जापान में हिन्दी: विविध आयाम’ विषय से हुई,जिसमें प्रो. हरजेन्द्र चौधरी(ओसाका) के अलावा योइचि सुकुशिता(तोक्यो), प्रो.हिदेआकि इशिदा(साइतमा),श्रीमती मिवाको कोइजुका(ओसाका),प्रो.योशिफमि मिजुनो (तोक्यो),केइको शिराइ और प्रो.सुरेश रितुपर्ण ने जापान में हिन्दी शिक्षण की उपलब्धियों और कठिनाइयों पर विस्तार से चर्चा की।अन्तिम सत्र ‘सूचना प्रौद्योगिकी एवं जन संचार माध्यमों मेंहिन्दी का अनुप्रयोग पर था,जिसमें श्रि आर. चन्द्रशेखर,श्री गगन शर्मा,डॉ. माधुरी सुबोध और श्री मुनीस शर्मा ने भाग लिया।
समापन सत्र के मुख्य अतिथि ओसाका में भारत के कौंसलाधीश एवं अंग्रेज़ी उपन्यास ‘क्यू एंड ए’ (जिसपर ‘मिलनेयर स्लमडॉग’ बनी) के लेखक श्री विकास स्वरूप ने की। भारतीय प्रतिनिधियों की ओर से श्री ओम थानवी और विदेशी प्रतिनिधियों की ओर से श्री हंस हनूमानसिंह ने उद्गार व्यक्त किये। इस अवसर पर भारतीय संस्था ‘स्वयम्प्रभा’(देहरादून) की ओर से शाल ओढ़ाकर महामहिम विकास स्वरूप, डॉ.बुद्धिनाथ मिश्र और श्री गंगाधरसिंह सुखलाल ने प्रो.ताकेइ फुजिइ को सम्मानित किया। डॉ. रितुपर्ण ने संगोष्ठी का सार-संक्षेप प्रस्तुत किया और प्रो.ताकेशि फुजिइ ने जापान सरकार,भारत सरकार,प्रतिनिधियों और सहयोगियों के प्रति धन्यवाद-ज्ञापन करते हुए सम्मेलन को सफ़ल बनाने में भारतीय दूतावास के काउंसलर श्री टी.एन.अनंतकृष्ण, डिप्टी चीफ़ ऑफ़ मिशन श्री संजय पांडा,मिनिस्टर(मीडिया) श्री रवि माथुर,एयर इंडिया के मैनेजर (जापान) श्री उज्ज्वल घोष,‘स्पाइस मैजिक कलकत्ता’ के स्वामी श्री जगमोहन एवं बेला चन्द्राणी, श्रीमती मधुलिका रितुपर्ण तथा हिन्दी विभाग के छात्र-छात्राओं के सक्रिय योगदान के प्रति आभार व्यक्त किया।
1 टिप्पणियाँ:
बहुत बढिया और विस्तृत रपट प्रस्तुत की है।
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