भारत की भाषाओं के अध्ययन के लिए नए प्रतिमानों एवं नई दृष्टि की आवश्यकता है। भारत में बोली जानेवाली भिन्न भाषा-परिवारों की भाषाओं के समान क्रोड के वैज्ञानिक एवं व्यवस्थित अध्ययन की आवश्यकता असंदिग्ध है। किसी भी विषय का भेद दृष्टि से अध्ययन करने पर जहाँ हमें अन्तर, असमानताएँ, भिन्नताएँ अधिक दिखाई देती हैं, उसी विषय का अभेद दृष्टि से अध्ययन करने पर हमें एकता एवं समानता अधिक नज़र आती है। विद्वानों ने भारत की भाषाओं के भेदों की जाँच-पड़ताल तो बहुत की है; ‘ बाल की खाल ’ बहुत निकाली है। कामना है, विद्वान-गण भारत की भाषाओं में विद्यमान सादृश्य के सूत्रों की खोज के काम में भी उसी निष्ठा के साथ प्रवृत्त हों, जिससे भारत की भाषिक एकता की अवधारणा और अधिक स्पष्ट एवं उजागर हो सके।

हिन्दी के मातृभाषियों की संख्या विश्व में चीनी भाषा के बाद सर्वाधिक है तथा इसका प्रचार प्रसार एवं अध्ययन अध्यापन अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर हो रहा है। कुछ ताकतें हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने का कुचक्र रच रही हैं। इनकी शक्ति यद्यपि कम नहीं है तथापि इनके द्वारा समय समय पर किए जाने वाले षड़यंत्रों को बेपरदा एवं बेनकाब करने की आवश्कता असंदिग्ध है।

मेरा आकलन है कि हिन्दी को आगे बढ़ने से अब कोई ताकत रोक नहीं सकती। हिन्दी निरन्तर आगे बढ़ रही है। बीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में एक सम्मेलन का समापन करते हुए मैंने यह मत व्यक्त किया था कि 19वीं शताब्दी फ्रेंच भाषा की थी, 20 वीं शताब्दी अंग्रेजी भाषा की थी तथा 21 वीं शताब्दी हिन्दी की होगी। मैंने अपने इस मत की पुष्टि के लिए निम्नलिखित कारणों की विस्तार से विवेचना की थी –

1. भाषा बोलने वालों की संख्या
2. भाषा व्यवहार क्षेत्र का विस्तार
3. हिन्दी भाषा एवं लिपि व्यवस्था की संरचनात्मक विशेषताएँ
4. भविष्य में कम्प्यूटर के क्षेत्र में ‘टैक्स्ट टू स्पीच’ तथा ‘स्पीच टू टैक्स्ट’ तकनीक का विकास
5. भारतीय मूल के आप्रवासी एवं अनिवासी भारतीयों की संख्या, श्रमशक्ति, मानसिक प्रतिभा में निरन्तर अभिवृद्धि।

मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से विश्व में सर्वाधिक बोलीजाने वाली भाषाओं के जो आंकड़े मिलते थे, उनमें सन् 1998 के पूर्व, हिन्दी को तीसरा स्थान दिया जाता था। सन् 1991 के सेन्सॅस ऑफ इण्डिया का भारतीय भाषाओं के विश्लेषण का ग्रन्थ जुलाई, 1997 में प्रकाशित हुआ। यूनेस्को की टेक्नीकल कमेटी फॉर द वॅःल्ड लैंग्वेजिज रिपोर्ट ने अपने दिनांक 13 जुलाई, 1998 के पत्र के द्वारा ‘यूनेस्को प्रश्नावली’ के आधार पर हिन्दी की रिपोर्ट भेजने के लिए भारत सरकार से निवेदन किया। भारत सरकार ने उक्त दायित्व के निर्वाह के लिए केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर महावीर सरन जैन को पत्र लिखा। प्रोफेसर महावीर सरन जैन ने दिनांक 25 मई, 1999 को यूनेस्को को अपनी विस्तृत रिपोर्ट भेजी।

प्रोफेसर जैन ने विभिन्न भाषाओं के प्रामाणिक आँकड़ों एवं तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध किया कि प्रयोक्ताओं की दृष्टि से विश्व में चीनी भाषा के बाद दूसरा स्थान हिन्दी भाषा का है। रिपोर्ट तैयार करते समय ब्रिटिश काउन्सिल ऑफ इण्डिया से अंग्रेजी मातृभाषियों की पूरे विश्व की जनसंख्या के बारे में तथ्यात्मक रिपोर्ट भेजने के लिए निवेदन किया गया। ब्रिटिश काउन्सिल ऑफ इण्डिया ने इसके उत्तर में गिनीज बुक आफ नॉलेज (1997 संस्करण) का पृष्ठ-57 फैक्स द्वारा भेजा। ब्रिटिश काउन्सिल ने अपनी सूचना में पूरे विश्व में अंग्रेजी मातृभाषियों की संख्या 33,70,00,000 (33 करोड़, 70 लाख) प्रतिपादित की। सन् 1991 की जनगणना के अनुसार भारत की पूरी आबादी 83,85,83,988 है। मातृभाषा के रूप में हिन्दी को स्वीकार करने वालों की संख्या 33,72,72,114 है तथा उर्दू को मातृभाषा के रूप में स्वीकार करनेवालों की संख्या 04,34,06,932 है। हिन्दी एवं उर्दू को मातृभाषा के रूप में स्वीकार करनेवालों की संख्या का योग 38,06,79,046 है जो भारत की पूरी आबादी का 44.98 प्रतिशत है। मैंने अपनी रिपोर्ट में यह भी सिद्ध किया कि भाषिक दृष्टि से हिन्दी और उर्दू में कोई अंतर नहीं है। इस प्रकार ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, आयरलैंड, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि सभी देशों के अंग्रेजी मातृभाषियों की संख्या के योग से अधिक जनसंख्या केवल भारत में हिन्दी एवं उर्दू भाषियों की है। रिपोर्ट में यह भी प्रतिपादित किया गया कि ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक कारणों से सम्पूर्ण भारत में मानक हिन्दी के व्यावहारिक रूप का प्रसार बहुत अधिक है। हिन्दीतर भाषी राज्यों में बहुसंख्यक द्विभाषिक समुदाय द्वितीय भाषा के रूप में अन्य किसी भाषा की अपेक्षा हिन्दी का अधिक प्रयोग करता है।  


प्रस्तुत आलेख का विवेच्य दक्षिण भारत में हिन्दी भाषा के प्रचार एवं प्रसार की मीमांसा प्रस्तुत करना है। इस कारण इसी विशेष संदर्भ में विवेचना प्रस्तुत की जाएगी। इस विवेचना की पृष्ठभूमि के रूप में, स्वाधीनता आन्दोलन युग में हिन्दी की राष्ट्रीय भूमिका को स्पष्ट करना जरूरी है।

स्वाधीनता के लिए जब-जब आन्दोलन तीव्र हुआ, तब-तब हिन्दी की प्रगति का रथ भी तीव्र गति से आगे बढ़ा। हिन्दी राष्ट्रीय चेतना की प्रतीक बन गई। स्वाधीनता आन्दोलन का नेतृत्व जिन नेताओं के हाथों में था उन्होंने यह पहचान लिया था कि विगत 600-700 वर्षों से हिन्दी सम्पूर्ण भारत की एकता का कारक रही है; यह संतों, फकीरों, व्यापारियों, तीर्थ-यात्रियों, सैनिकों द्वारा देश के एक भाग से दूसरे भाग तक प्रयुक्त होती रही है।

मैं यह बात जोर देकर कहना चाहता हूँ कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा की मान्यता उन नेताओं के कारण प्राप्त हुई जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं थी। बंगाल के केशवचन्द्र सेन, राजा राम मोहन राय, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस; पंजाब के बिपिनचन्द्र पाल, लाला लाजपत राय; गुजरात के स्वामी दयानन्द, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी; महाराष्ट के लोकमान्य तिलक तथा दक्षिण भारत के सुब्रह्मण्यम भारती, मोटूरि सत्यनारायण आदि नेताओं के राष्ट्रभाषा हिन्दी के सम्बंध में व्यक्त विचारों से मेरे मत की संपुष्टि होती है। हिन्दी भारतीय स्वाभिमान और स्वातंत्र्य चेतना की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गई। हिन्दी राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक हो गई। इसके प्रचार प्रसार में सामाजिक, धार्मिक तथा राष्ट्रीय नेताओं ने सार्थक भूमिका का निर्वाह किया।


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