' श्री ज्ञानरंजन ''का मानना है :-"समीर लाल, एक बड़े और निर्माता ब्लॉगर के रुप में जाने जाते हैं. मेरा इस दुनिया से परिचय कम है. रुचि भी कम है. मैं इस नई दुनिया को हूबहू और जस का तस स्वीकार नहीं करता. अगर विचारधारा के अंत को स्वीकार भी कर लें, तो भी विचार कल्पना, अन्वेषण, कविता, सौंदर्य, इतिहास की दुनिया की एक डिज़ाइन हमारे पास है. यह हमारा मानक है, हमारी स्लेट भरी हुई है. मेरे लिए काबुल के खंडहरों के बीच एक छोटी सी बची हुई किताब की दुकान आज भी रोमांचकारी है. मेरे लिए यह भी एक रोमांचकारी खबर है कि अपना नया काम करने के लिए विख्यात लेखक मारक्वेज़ ने अपना पुराना टाइपराईटर निकाल लिया है. कहना यह है कि समीर लाल ने जब यह उपन्यास लिखा, या अपनी कविताएं तो उन्हें एक ऐसे संसार में आना पड़ा जो न तो समाप्त हुआ है, न खस्ताहाल है, न उसकी विदाई हो रही है. इस किताब का, जो नावलेट की शक्ल में लिखा गया है, इसके शब्दों का, इसकी लिपि के छापे का संसार में कोई विकल्प नहीं है. यहां बतायें कि ब्लॉग और पुस्तक के बीच कोई टकराहट नहीं है. दोनों भिन्न मार्ग हैं, दोनों एक दूसरे को निगल नहीं सकते. मुझे लगता है कि ब्लॉग एक नया अखबार है जो अखबारों की पतनशील चुप्पी, उसकी विचारहीनता, उसकी स्थानीयता, सनसनी और बाजारु तालमेल के खिलाफ हमारी क्षतिपूर्ति करता है, या कर सकता है. ब्लॉग इसके अलावा तेज है, तत्पर है, नूतन है, सूचनापरक है, निजी तरफदारियों का परिचय देता है पर वह भी कंज्यूम होता है. अपनी अभिव्यक्ति में ' प्रोफ़ेसर ज्ञानरंजन ने एकदम सटीक और सामयिक परिभाषा दी है ब्लाग को. इतनी बेबाक़ एवम सहृदय टिप्पणी आज़ तक सामान्य रूप से देखने को सुनने को मुझे तो नहीं मिली. बेशक हिन्दी ब्लागिंग के लिये उनकी दी हुई यह परिभाषा नई बहस की जनक होगी यह तय है, अखबारों के लिये भी चिंतन का विषय है. मेरी दृष्टि में ज्ञानरंजन जी समझा रहे हैं "साहित्य की अन्य किसी भी विधा के सापेक्ष प्रेस से सीधे मुक़ाबिल हो रहा है ब्लॉग"
(जबलपुर से गिरीश बिल्लोरे मुकुल की रपट )
4 टिप्पणियाँ:
bahut achhi samyik jaankari..
prastuti ke liye aabhar
ब्लॉग निसंदेह , अखबारों में रह गयी कमी को पूरी कर रहा है।
बिल्कुल ठीक कहते हैं रवींद्र जी आप।
isamen koi sandeh nahi
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