यमुनानगर। निर्वासित होने का दर्द हम सबके भीतर बना रहता है। दिल्ली भी प्रवासियों का शहर है। विदेशों में रह रहे कि भारतीय वहां के लोगों के साथ उतने आत्मसात नहीं हो पाते, जितना उन्हें होना चाहिए। ये शब्द सुप्रसिद्ध कथाकार एवं हंस पत्रिका के संपादक राजेंद्र यादव ने डीएवी गर्ल्‍स कालेज में कथा यू के (लंदन) कालेज के संयुक्त तत्वावधान में प्रवासी साहित्य पर आयोजित तीन दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी के दौरान संबोधित करते हुए कहे। 


इस दौरान ब्रिटिश लेबर पार्टी लंदन की काउंसलर जकीया जुबैरी, कथा यूके के महासचिव तेजेंद्र शर्मा, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद् पत्रिका के संपादक प्रेम जनमेजय ने विशिष्ट अतिथि के तौर पर उपस्थित रहे। मंच संचालन संगोठी संयोजक एवं कथा यूके के सचिव अजित राय ने किया।

श्री राजेन्द्र यादव ने कहा कि हिंदी का लचीलापन ही उसके विकास की पहचान है। यही कारण है कि आज विदेशों में भी उसका विस्तार हो रहा है। जो लोग १००-१५० साल पहले विदेशों में बस गए, वे अब भारत लौटना नहीं चाहते। लेकिन वे वहीं पर रहकर साहित्य की रचना कर रहे हैं। अगर प्रवासी बहुत ज्यादा अपनी जड़ों की ओर लौटेंगे, तो  इससे साहित्य का विकास अवरूद्ध होगा। विदेशों में जो लोग साहित्य की रचना कर रहे हैं, वे हमेशा दोहरी पहचान में बंधे रहते है। जिस कारण वह तो यहां की और ही वहां की जिंदगी में हस्तक्षेप नहीं कर पाता।


कथा यूके (लंदन) के महासचिव तेजेंद्र शर्मा ने कहा कि विदेशों में जो साहित्य की रचना हो रही है, उसे वहीं का साहित्य मानना चाहिए। लेकिन उनके साहित्य को प्रवासी साहित्य का नाम दिया जा रहा है। मुख्य धारा के लेखकों में प्रवासी लेखकों का नाम नहीं लिया जाता। विदेश में लिख गए साहित्य को प्रवासी साहित्य का नाम देकर एक पैरा में निपटा दिया जाता है।  साहित्य को एक देश से दूसरे देश तक पहुंचाने का जो काम वेबसाइट नुक्कड़  द्वारा किया जा रहा है, वह किसी लघु पत्रिका द्वारा संभव नहीं है।


ब्रिटिश लेबर पार्टी की काउंसलर जकीया जुबैरी ने कहा कि प्रवासी साहित्यकारों को अगर दिवाना कहा जाए, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। क्योंकि वे दिनभर अंग्रेजी में काम करते है, बावजूद इसके हिंदी में रचनाएं लिख रहे हैं। उन्होंने भारतीयों से आह्वान किया कि उनके साहित्य को पौंड्स में तोलें। प्रवासी साहित्य की भी आलोचना होनी चाहिए, ताकि उनका साहित्य और ज्यादा निखर कर सामने सके।

गगनांचल के संपादक प्रेम जनमेजय ने कहा कि विदेशों में संवेदनहीनता है। जब ऐसी चीजें सामने आएगी तो वह कैसी होगी, इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। जब तक मन प्रवासी नहीं होगा, तब तक संवेदनाएं नहीं आएगी। प्रवासी साहित्यकारों को बताना पड़ेगा कि उनका साहित्य क्या है। उन्होंने कहा कि नई प्रगति साहित्य को जन्म देती है।

दिल्ली विश्वविद्यालय हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर गोपेश्वर सिंह ने कहा कि प्रवासी साहित्य एक स्थापित साहित्य है। जिसे दरकिनार नहीं किया जा सकता। हिंदी पूरे विश्व में फैल रही है। प्रवासी साहित्य के जरिए हिंदी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना रही है। भूमंडलीकरण के इस दौर में हिंदी का नया रूप हमारे सामने रहा है। भाषा बदलती है, भ्रष्ट नहीं होती। उन्होंने कहा कि भूमंडलीकरण के दौर में देशभक्ति,  राष्ट्रवाद एक प्रकार की बीमारी है, जो कि गलत है।

कॉलेज प्रिंसीपल डा. सुषमा आर्य ने कहा कि प्रवासी साहित्यकारों का भारत जगत के साथ जो रिश्ता होना चाहिए, वह किसी कारणवश बन नहीं पा रहा। हिंदी साहित्य को किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता। प्रवासी साहित्य आसानी से देश में उपलब्ध नहीं है। कुछ साहित्यकार इंटरनेट के माध्यम से सभी लोग तक उनका साहित्य पहुंचाने में लगे हुए हैं।


संगोष्ठी के संयोजक अजित राय ने कहा कि भारत के बाहर जो लोग साहित्य की रचना कर रहे हैं, उनकी जड़े कहां हैं, देशभक्ति की नई परिभाषा किसके साथ जुड़ेगी। नई मीडिया प्रौद्योगिकी का प्रवासी साहित्य के साथ क्या संबंध है, इत्यादि मुद्दों पर अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में विचार विमर्श किया जाएगा। विश्व में डीएवी गर्ल्‍स कॉलेज, यमुनागर एक मात्र ऐसा कालेज है, जहां पर अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह के बाद इस प्रकार का आयोजन हो रहा है।
(यमुना नगर से अविनाश वाचस्पति की रपट ) 

3 टिप्पणियाँ:

Swarajya karun said... February 11, 2011 at 10:41 AM

अच्छा आयोजन. अच्छी रिपोर्ट .आभार .

मनोज पाण्डेय said... February 11, 2011 at 2:51 PM

सुंदर और सारगर्भित रिपोर्टिंग के लिए बधाई ...

गीतेश said... February 11, 2011 at 2:52 PM

अच्छी रिपोर्ट,आभार !

 
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